बाबूजी ज़रा कुछ दे दीजिये मेरी बेटी बहुत भूखी है, इस धीमी सी दबी हुई आवाज़ को मेरे कानों में पहुचने से पहले ही एक ज़ोरदार आवाज़ ने रोक लिया, “हूँ भूखी है तो क्या, हमने क्या ठेका लिया है पूरी दुनियादारी के पेट पालने का, अच्छा तरीका है भीख मांगने का, आज माँ कर रही है कल बेटी भी करेगी चल चल भाग यहाँ से ” । मैंने नज़र घूमा के देखा तो राजवत जी उस मैली, फटी, कुचली हुई धोती पहनी हुई भिखारिन जिसके हाथ में शायद कोई दो वर्ष की बच्ची होगी उसे भगा रहे थे ।राजवत जी को देखते ही कुछ तस्वीरें मेरे जहन में उतर गईं । ये शायद वही सुप्रख्यात समाजसेवी राजवत जी थे जिनकी अवमानना कोई भी नहीं कर सकता था, जिनहोने भारत में औरत को उसका सही दर्जा दिलाने की कसम खाई हुई थी,जिनहोने महिला दिवस पर दिल छू लेने वाली कितनी ही पंक्तियाँ लोगों के दिलों से गुजारते हुए उनकी तालियों के बीच रख दी थी, जो महिला हितेषी भी थे और उनकी इज्ज़त भी करते थे । परंतु आज ना जाने राजवत जी उस महिला को ऐसे क्यूँ बोल रहे थे ?जब वो औरत जाने लगी तो ना जाने उसके कांधे पर सिर टिकाये उस मासूम की बच्ची के प्यास से उधड़े हुए होठों ने और मासूम सी आँखों ने मुझसे क्या कहा की मैं बस से उतर कर उस भिखारिन को बुलाने लगा । उसके आने पर मैंने उससे पूछा “कब से भूखी है बच्ची” उसने कहा “2 दिन से”। मैंने समय ना गँवाते हुए उसे ढाबे पे बैठाते हुए कहा तुम इसका ध्यान क्यूँ नहीं रखती हो?
इतनी भूखी है फिर भी 2 दिन से कुछ खिलाया क्यूँ नहीं?
उस औरत ने पलकों पर छलकते हुए आँसू को अपने मैले आँचल से धीरे से पोंछते हुए कहा ” बाबूजी, सब कुछ मंच पर बोली हुई बातों की तरह नहीं होता, ये ज़िन्दगी है इसे सुख में और दुख में काटना पड़ता है।” तो फिर इस बच्ची को क्यूँ भूखा रखा हुआ है, बरबस उठे मेरे इस सवाल पर उसने खाने की प्लेट की तरफ नज़र उठा कर कहा, “अब क्या बताऊँ बाबूजी”
वो दोनों माँ और बेटी खाना खाने में व्यस्त हो गयीं और मैं सोचने लगा, क्या ज़िन्दगी पुस्तक में हुई बातों के अलावा भी कुछ और है या वो है जो राजावत बाबू अपने सभी भाषणों में स्त्री कल्याण की बात करते हुए कहते हैं?
क्या सच में राजावत साहब जो बोलते हैं वही करते हैं या सब कुछ मात्र एक मृगतृष्णा, एक दिखावा, एक छल है, ख़ुद को सभ्य दिखाने का?
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Thanks Behen.
This one dated back to my college time.
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